मैं वीरमदेव चौकी। वीर वीरमदेव द्वारा राज्य पर नज़र रखने के उद्देश्य से बनवाई गई, लेकिन उसके बाद सदा उपेक्षित रही। मैं क्या सारा दुर्ग ही तो उपेक्षित है। दुर्ग को सुधारने की बात आती है तो कई अधिकारी और राजनीति उस सूरमा के बलिदान दिवस पर यहां आते हैं, लेकिन पहली बार ऐसा हुआ कि केवल दुर्ग को जानने और सहेजने के लिहाज से कोई आए तो कुछ कहने का मन हो गया। स्वर्णगिरी राजस्थान के श्रेष्ठ गिरी दुर्गों से एक है ऐसा दुर्ग में प्रवेश करते ही लिखा है, लेकिन पुरातत्व विभाग की ओर से संरक्षित दुर्ग सुरक्षित नहीं है।
दुर्ग की टूटती दीवारें, असामाजिक तत्वों द्वारा नुकसान पहुंचाई जा रही संपदा और राजनैतिक-प्रशासनिक उदासीनता का शिकार स्वर्णगिरी अपने अस्तित्व के लिए न्याय मांगता है।जालोर दुर्ग में प्रवेश करते समय पुरातत्व विभाग की ओर से लिखवाए गए सूचना के मुताबिक हालांकि दुर्ग पुरातत्व विभाग की ओर से संरक्षित तो है, लेकिन देखा जाए तो इसे सुरक्षित नहीं कहा जा सकता। एक ओर कभी दुर्ग तक अपना नाम लाने के लिए खिलजी को महीनों घेरा डालना पड़ा वहीं दूसरी ओर आज किले की दीवारों कई मनचलों ने कोयलों से ही नाम लिख दिए हैं। उपेक्षित धरोहरों में किले पर स्थित शिव मंदिर भी है।
इतिहास के मुताबिक यहां का शिवलिंग सोमनाथ का एक हिस्सा है, लेकिन उसके साथ भी प्रशासन और राजनीति ने कभी न्याय करने की कोशिशभर नहीं की। वहीं जौहर स्थल, झालरा बावड़ी, दहिया की पोल, कीर्ति स्तंभ और जैन मंदिर ऐसे स्थान है, जिन्हें देखकर पर्यटक ठिठककर रह जाए, लेकिन उन्हें यह बताए कौन? इन सबको देखकर क्या नहीं लगता कि अपने अंदर इतिहास के इन क्षत-विक्षत भग्नावशेषों को स्वर्णगिरी दुर्ग में ही उसकी उपेक्षित और मसोसी हुई धड़कनें सिमटी हुई नजर आती हैं। इतिहास का ज़र्रा-ज़र्रा, इस माटी का कण-कण और समय पट्ट का धागा-धागा यह कहता है कि इस दुर्ग के पत्थर कभी बोलते थे।
यहां आने वाले हर राहगीर से पत्थर आह्वान करते नजर आते हैं कि यदि मनुष्य की भावनाओं के जौहरी हो तो आकर पहचानो कि उसके पत्थर बड़े कि कारीगर। मेरा आह्वान इतना है कि हर बार राजनैतिक कथन होते हैं और इस बार प्रशासनिक प्रयास की उम्मीद है इसमें जालोर का प्रत्येक नागरिक अपना योगदान दें। बहुत कुछ कहना चाहा है, लेकिन फिर भी कुछ रह गया। शायद ये पंक्तियां पूरा कर देंगी।
सुनने की मोहलत मिले तो आवाज है पत्थरों में
कहीं उजड़ी हुईं बस्तियों से आबादियां बोलती हैं
- प्रदीपसिंह बीदावत
१५ जनवरी २००८ को लिखा