जिन्दल तुम तो मर ही गए होंगे...। नहीं...। फिर शर्म तो आई ही होगी..। क्या...! वह भी नहीं!!
क्यों, शर्म आने के लिए भी कोई मैनेजर-डाइरेक्टर रख लिया? जिस तरह किसी अबला की जमीन, आबरू और जीवन लूटने के लिए रखे हैं? तुम कौन हो, मैं नहीं जानता? जानना चाहता भी नहीं। तुम व्यक्ति हो या कंपनी, यह भी मुझे नहीं पता। तुम क्या हो, यह प्रश्न नहीं है। सवाल यह है कि तुम अब भी जिन्दा कैसे हो? डूब मरना चाहिए। अकेले नहीं, अपने चहेतों और सहकर्मियों को साथ लेकर।
एक आदिवासी की ज़मीन लूटने के लिए जो खेल चल रहा। वह रूह कंपाने वाला है, लेकिन जिम्मेदारों के कानों जूं तक नहीं रेंगी। नौकरशाह, वकील, उद्योगपति और इन सबकी मिलीभगत ने भारत में लोकतंत्र की जड़ें दिखाई हैं। कोई कुछ भी क्यों नहीं कर रहा?
यह द्रोपदी सिसक पड़ी, परन्तु किसके आगे? सरकार रूपी पाण्डव दांव में अपनी ज़मीन कब की भेंट कर चुके। यह महाभारत नहीं आज का भारत है और यहां कहानी थोड़ी आगे बढक़र है। सरकार जमीन सिर्फ राज की ही नहीं, जनता की भी दांव पर लगाती है। यह भी पता चला कि जमीन के साथ-साथ गरीबों की आजीविका, इज्जत-आबरू और सुख-चैन भी भेंट चढ़ाया जाता है। नजराना, भेंट, कटसी या और भी कुछ नाम दे देकर। इससे क्या होगा? आदिवासी विरोध भी करेंगे तो क्या...। ठोक देंगे...। आमने-सामने कौन? पुलिस या सीआरपीएफ...। मरेंगे तो सरकार का क्या बिगड़ेगा। नक्सली पैकेज की कौनसी ऑडिट होती है। हर कोई अपने-अपने राज्य में ऐसा खेल खेलने में लगा है। भारत के ऐसे हाल क्या किसी ने सोचे थे?
द्रोपदी लुट रही थी और भीष्म, धृतराष्ट्र, द्रोण, कृपाचार्य, विदुर, आमत्य वृषवर्मा देखन-समझने की कोशिश का नाटक कर रहे कि हो क्या रहा है? पाण्डव तो बिचारे पहले ही एमओयू करके चुप हो गए। महिला अधिकारों की झंडाबरदार भी महाभारत की सभा में मौजूद गांधारी जैसी स्थिति में हैं। विद्वजन बताते हैं कि तब की सभा में वह पैशाचिक कृत्य ‘महाभारत होने’ का प्रमुख कारण था। आज यदि यह पांचाली हरण रोजाना होता रहा तो कहीं ‘भारत के नहीं होने’ का कारण न बन जाए।
उस समय तो द्रोपदी को लूटने का प्रयास मात्र हुआ था। परन्तु आज तो वह रोजाना लूट ही ली जा रही है, किसी एक का भी खून नहीं खौलता। क्या रक्त जम गया... या हमारे द्वारा स्त्रियों को सम्मान दिए जाने का इतिहास मिथ्या है...। मिथ्या ही प्रतीत होता है...। हम इतने हिप्पोक्रेट जो हैं। कहते हैं वह नहीं करते...। कहते क्या, लिखते-पढ़ते-बोलते-सुनते-सुनाते
उठो द्रोपदी शस्त्र उठा लो, अब गोविंद ना आएंगे।
छोड़ो मेहंदी खडग़ संभालो, खुद ही अपना चीर बचालो। अब गोविंद ना आएंगे।
- प्रदीप बीदावत
(नोट : यह विचार राजस्थान पत्रिका छत्तीसगढ़ के साथी की खबर पर मेरे मन में आए। साथी की खबर पढऩे और पीडि़ता का ऑडियो सुनने के लिए क्लिक करें। राजस्थान पत्रिका के निम्न लिंक पर)
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