कल रात एक बालक ने बड़ा प्रभावित किया। यही तीन-चार वर्ष का रहा होगा। पिता बड़े ओहदेदार, माताजी सलीकेदार। माता-पिता की नजरों में यह उसकी उद्दण्डता अथवा जिद कही जा सकती है, लेकिन किनारे खड़े स्वतंत्र समीक्षक की भांति यही कहना चाहूंगा कि बच्चे के भाव उसकी आत्मा के भाव थे। उसका प्रभावित करना उसकी बाल सुलभ चपलता थी।
उस पर आज्ञाएं थोपी नहीं जानी चाहए, भले ही वे किसी के पैर छूने की क्यों न हों। यहां न तो उनके माता-पिता का परिचय दूंगा और न ही बच्चे का। यह स्थिति लगभग सभी के साथ आती हैं। माता-पिता कहीं भी जाते हैं तथाकथित बड़े और मीडिया से बनाए हुए आदर्शों का चोला पहने लोग मिलते हैं, खुद प्रणाम करते हैं। मजबूर हैं। मीडिया से जुड़े होने के कारण हम जैसे कई मजबूर हैं उन्हें हीरो बनाने के लिए। उनके महिमामंडन के लिए। पता नहीं क्यों? मन तो नहीं करता, लेकिन बुभुक्षुम् किम् करोति न पापम्। विश्वामित्र याद आ जाते हैं जब द्वापर में भूख लगने पर कुत्ते का मांस खाया था।
लेकिन बच्चे की गर्दन पकडक़र झुकाना ठीक नहीं।
पर यह बच्चा नहीं झुका। पिताजी ने अच्छे बच्चे होने का हवाला दिया। माताजी ने पढऩे वाला राजा बेटा होने की बात भी कही, लेकिन बच्चा पैर छूने की बजाए हाथ मिलाकर आया। यह बात प्रभावित कर गई कि हिन्दुस्तान का भविष्य अब करवट बदल रहा है। चैतन्यता का उज्ज्वल प्रवाह नई पीढ़ी की धमनियों में आने लगा है। भले यह पीढिय़ों से अर्जित किया हुआ धन है अथवा वर्तमान समय की जरूरत। बच्चे का स्वाभिमान उसने जीवित रखा।
उसे यदि हम किसी को प्रणाम करने के लिए कहते हैं तो वह प्रणाम क्यों करे? जिस व्यक्ति को वह चरण स्पर्श कर रहा है वह दुनिया में उससे पहले आ गया यह कोई कारण नहीं है। उसका व्यक्तित्व किसी का आदर्श होने लायक है।
बड़े दार्शनिक रजनीश ने इसे ढंग से व्याख्यित किया है : आपके घर में छोटा बच्चा है, घर में कोई मेहमान आते हैं, आप उससे कहते हैं, चलो पैर पड़ो। और वह बिलकुल नहीं पड़ना चाह रहा है। लेकिन आपकी आज्ञा उसे माननी पड़ेगी।
मैं किसी के घर में जाता हूँ, माँ-बाप पैर पड़ते हैं, और अपने छोटे-छोटे बच्चों को गर्दन पकड़कर झुका देते हैं! वे बच्चे अकड़ रहे हैं, वे इन्कार कर रहे हैं। उनका कोई संबंध नहीं है, उनका कोई लेना-देना नहीं है, और बाप उनको दबा रहा है!
यह बच्चा थोड़ी देर में सीख जाएगा कि इसी में कुशलता है कि पैर छू लो। इसका पैर छूना व्यक्तित्व का हिस्सा हो जाएगा। फिर यह कहीं भी झुककर पैर छू लेगा, लेकिन इसमें कभी आत्मीयता न होगी। इसकी एक महत्वपूर्ण घटना जीवन से खो गई। अब यह किसी के भी पैर छू लेगा और वह कृत्रिम होगा, औपचारिक होगा। और वह जीवन का परम अनुभव, जो किसी के पैर छूने से उपलब्ध होता है, इसको नहीं उपलब्ध होगा।
अब इसका पैर छूना एक व्यवस्था का अंग है। यह समझ गया कि इसमें ज्यादा सुविधा है। यह अकड़ कर खड़े रहना ठीक नहीं। पिता झुकाता ही है, और पिता को नाराज करना उचित भी नहीं है, क्योंकि वह पच्चीस तरह से सताता है, और सता सकता है। तो इसमें ही ज्यादा सार है, बुद्धिमान बच्चा झुक जाएगा। समझ लेगा।
मगर यह झुकना यांत्रिक हो जाएगा। और खतरा यह है कि किसी दिन ऐसा व्यक्ति भी इसको मिल जाए, जिसके चरणों में सच में यह झुकना चाहता था तो भी यह झुकेगा, वह कृत्रिम होगा। क्योंकि वह सच इतने पीछे दब गया, और व्यक्तित्व इतना भारी हो गया है।
अधिक कुछ न कहते हुए तहेदिल से उस नन्हे बालक के उज्ज्वल भविष्य की शुभकामनाएं करता हूं।