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Sunday, February 14, 2010

मदन महोत्सव पर भी कुछ लिखो-पढो बंधुओं

अक्सर प्रश्न उठता है कि प्रेम क्या है। आज तक प्रेम की कोई सर्वसम्मतपरिभाषा नहीं निकल पाई। इतना जरूर है कि प्रेम को ढाई अक्षरों का नाम देकर किताबों में समेट कर रखा नहीं जा सकता।
जब सोणी ने महिवाल का हाथ थामा होगा अथवा हीर ने रांझे को चाहा होगा, तब कबीर लिखते हैं `ढाई आखर प्रेम के पढ़े सो पंडित होय…।´

किसने सोचा था कि अरब के अरबपति शाह अमारी का बेटा `कैस´ और नाज्द के शाह की बेटी लैला में दशमिक के मदरसे में पढ़ाई के दौरान उपजा प्रेम लैलामंजनूं के इश्क के रूप में दुनिया में मशहूर होगा और उन दोनों की कब्र दुनियाभर के प्रेमियों की इबादतगाह होगी।
किसने सोचा था कि द्वापर में कृष्ण की उपेक्षा से आहत हुई माधवी नाम की एक गोपी कलिकाल में मीरांबाई बनकर प्रेम के नए अध्याय के रूप में आलौकिक प्रेम को जन्म देगी। यहाँ राधा और मीरां में तुलना करें तो पाएंगे कि राधा को कान्हा के खो देने का डर था और मीरां को विश्वास था कि वह कृष्ण के लिए ही बनी है।
राधा कृष्ण को पाना चाहती थीं और मीरां खुद को सौंपना चाहती थी। इन दोनों में कौन जीता यह तो नहीं कहा जा सकता, लेकिन मीरां ने कृष्ण में समाकर साबित कर दिया कि प्रेम में धैर्य, आयास और समर्पण का भाव हो तो ईश्वर को पाना भी मुश्किल नहीं।
 आज की दुनिया संत वेलेंटाइन को प्रेम का आदर्श मानती है। कहते हैं कि जमाना विरह के गीत लिखने का नहीं, फंडू व शायरी वाले एसएमएस-ईमेल का है। युवा पीढ़ी बिछुड़ने की वेदना के अहसास को स्वप्न में भी नहीं सोचना चाहती। प्रेम केवल एक स्त्री का पुरुष अथवा पुरुष का स्त्री के प्रति का अहसास या भाव नहीं होता।

उनमें आकर्षण होना स्वाभाविक है, लेकिन अब वह जमाना नहीं रहा कि किसी शकुन्तला की वेदना पर कोई कालीदास अभिज्ञानशाकुन्तलम जैसे महाकाव्य की रचना कर बैठे। न वे भाव रहे कि चिमटा न होने के कारण रोटी बनाते समय किसी हामिद की बूढ़ी दादी की जली हुई उंगलियों के दर्द को महसूस कर कोई प्रेमचंद कहानी करे। किसी शबरी के झूठे बेरों की मिठास से प्रभावित होकर कोई तुलसी चौपाइयां लिखे। किसी नन्हें कान्हा के ठुमक-ठुमक कर चलने पर कोई सूरदास छन्द रचे। न तो प्रेम की पीर का कोई घनानंद बचा है और न ही विरह की मारी दरद दीवानी मीरां। आज के वलेंटाइन-डे को वैदिक संस्कृति में मदन महोत्सव के रूप में जाना जाता रहा है, लेकिन न तो आज के लिए लेखकों के लिए वैदिक संस्कृति में वर्णित प्रेम पर कुछ लिखने की सोच है और न ही आज के युवाओं को पढ़ने की फुर्सत।


मिथ्या जीवन के कागज़ पर सच्ची कोई कहानी लिख ,
नीर क्षीर तो लिख ना पाया पानी को तो पानी लिख ।

सारी उम्र गुजारी यूँ ही रिश्तों की तुरपाई में,
दिल का रिश्ता सच्चा रिश्ता बाकि सब बेमानी लिख ।।

हार हुई जगत दुहाई देकर ढाई आखर की हर बार,
राधा का यदि नाम लिखे तो मीरां भी दीवानी लिख।

इश्क मोहब्बत बहुत लिखा है लैला-मंजनूं, रांझा-हीर,
मां की ममता, प्यार बहिन का इन लफ्जों के मानी लिख।।

पोथी और किताबों ने तो अक्सर मन पर बोझ दिया
मन बहलाने के खातिर ही बच्चों की शैतानी लिख

कोशिश करके देख पोंछ सके तो आंसू पोंछ
बांट सके तो दर्द बांटले पीर सदा बेगानी लिख।।


राजस्थान पत्रिका के जालोर एडिशन में १४ फ़रवरी २००८ को प्रकाशित
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