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Tuesday, February 9, 2010

चाहत...

 
सावन की सी बारिशों में नित भीगने की अब चाह कहाँ,
पुष्प खिले, धरा फले ओ भीगे कंठ इतना सा तो पानी हो

दुनिया जीतने का जज्बा, आसमां चीरने का भी जोश,
कहाँ जाता हैं जब नन्ही सी बेटी से हार खानी हो

ऑस्कर, बुकर और पुलित्ज़र जैसे तमगे किसे चाहिए,
जो सीधे दिल तक उतरे ऐसी मेरी कविता-कहानी हो

रचना यह किसकी? भले कहानी के पात्र हैं कौन?
कोई फरक नहीं पड़ता जब कहने वाली नानी हो

गीत ग़ज़ल छंदों का मौसम, चुका हुआ सा लगता हैं,
मन में ही रहें चाहतें, जब घर में बहन सयानी हो

जब बढ़े अँधेरा, घटे उजाला और चेतना की भी चाह,
कोई बधेतर आस नहीं, बस आँखों में ग्लानी हो

मंदिर बने या मस्जिद? यहाँ इस पचड़े में कौन पड़े,
एक पागल सा खुसरो चाहूं, इक मीरां दीवानी हो

मेरी माँ सी अनिंद्य सुन्दरी इस दुनियां में दूजी कौन,
धरी रहे उपमाएं सारी, जब 'प्रदीप' ने ये ठानी हो

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