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Monday, July 12, 2010

चित्र नहीं यह तो विचित्र है,

बदल गया अब दौर पुराना,
देखो आया नया जमाना।
बेटी को रस्ते की ठोकर,
कुत्तों को कंधे पे उठाना।

वक्त ने बदसूरत कर डाला,
मां का चेहरा बहुत सुहाना।
जान निछावर अब पशुओं पर,
संतानों को सजा दिलाना।

दुश्मन जानी बने लोग तो,
और पशुओं पर जान लुटाना।
मां फिर बन जाओ मां जैसी,
जो चेहरा जाना पहचाना।

टूट गया नजरों के आगे,
इक सपना था बहुत सुहाना।
अब कैसे नजीर बनोगी,
और दोगी कैसे नजराना।

मां तो हैं अनमोल धरोहर,
मां के कदमों तले जमाना।
संतानों के सुख की चाहत,
सुबह-शाम बस एक ही गाना।

पश्चिम वालों के पिछलग्गू,
की हरकत है यह बचकाना।
मेरे भारत की वसुधा में,
भूले से भी कभी न आना।

चित्र नहीं यह तो विचित्र है,
कैसा है आया नया जमाना।
दिल छोटा सा कर देता है,
यह विकास का ताना-बाना।

अपनों से निबाह भी मुश्किल,
और गैरों को गले लगाना।
मानव रोये तन्हा-तन्हा,
बेदिल के दिल को बहलाना।

नदियां सूखी, रीते कुएं,
पनघट सदियों हुआ पुराना।
बिसलेरी पीने वालों ने,
माटी के जल को क्या जाना।

है प्रमोद की बातें झूठी,
तो सच को किसने पहचाना।

(यह रचना हमारे आदरणीय गुरु प्रमोदजी श्रीमाली ने बंधु आशीष जैन कोटा द्वारा उनके ब्लॉग पर लगाई गई फोटो को देखकर लिखी है। यह तुच्छ प्राणी भी इस फोटो और रचना को अपने ब्लॉग पर डालने का लोभ संवरण नहीं कर पाया।)

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