अभिलाषा नहीं रही पुष्प होने की
चाह होती हैं बस घुटकर रोने की
क्यों चढ़ाया ही जाऊं उस शीश पर
जो सलामी में झुका खोटे सोने की
क्यों जाऊं उन केशों में वेणी बनकर
जहाँ बदबू सी हैं परफ्यूम होने की
उस शहादत के पथ की भी चाह नहीं
कोशिश हैं जहाँ स्याही से लहू धोने की
कुम्हलाता हूँ सफेदपोशों के गले में घुट-घुट
राजनीती हैं देश में बस जादू - टोने की
उजाले की चाह ओ चेतन स्वर कहाँ
सब कोशिश में हैं अँधेरा बोने की
आरज़ू हैं माँ के चरणों में लिपटकर रोऊँ
जुस्तजू हैं 'प्रदीप' वजूद खोने की