कभी लोगों से ताने सुनने वाले विकलांग ने दिया मूक-बधिर बच्चों को मजबूत सहारा
पैरों और एक आंख से नि:शक्त धन्नाराम पुरोहित के बारे में गांव के लोग कहा करते थे कि यह बेचारा जिन्दगी में क्या कर पाएगा, लेकिन आज उसी धन्नाराम ने सैकड़ों निज्शक्तजनों को धन्य कर रखा है। किसी भी विकलांग को तकलीफ न हो, वह आगे चलकर अपना सहारा खुद बने, इसके लिए धन्नाराम ने विकलांगों की सेवा को अपनी साधना बना लिया है। वह जालोर जिले में महावीर आवासीय मूक-बधिर विद्यालय के संचालक हैं तथा मूक-बधिर बच्चों और विकलांगों की सेवा में जुटे हुए हैं। इस विद्यालय में साठ मूक-बधिर बच्चे अध्ययनरत हैं। यह जोधपुर संभाग का एकमात्र मूक-बधिर आवासीय विद्यालय है, जो सिर्फ धन्नाराम के जज्बे और समर्पण की वजह से चल रहा है। धन्नाराम कहते हैं - "ये सुन बोल नहीं सकते, लेकिन मैं इनकी आंखें पढ़ता हूं। उनमें आगे बढ़कर आसमान चीरने का जज्बा है। यही मेरी हिम्मत है।" धन्नाराम को अपना विकलांग प्रमाण पत्र बनवाने के लिए पन्द्रह दिन अस्पताल के चक्कर काटने पड़े थे। तभी उन्होंने तय किया कि जिन्दगी अपने जैसों की सेवा में ही बिताएंगे।
मुहिम खुद के पैसों से
पहले-पहल न तो सरकारी फण्ड था और ना ही समाजसेवी संस्थाओं का विश्वास। धन्नाराम ने खुद के पैसों से अभियान जारी रखा। सरकारी फण्ड तो आज भी नहीं है, लेकिन लोगों का इतना विश्वास हासिल कर लिया है कि किसी भी तरह के सहयोग के लिए कोई इनकार नहीं करता।
मुश्किल नहीं, अगर ठान लिया जाए
धन्नाराम बताते हैं कि सात साल की उम्र में कम्पाउण्डर की लापरवाही से उनके पैर और एक आंख चली गई। घरवालों से हरसम्भव इलाज के साथ मन्दिर में चक्कर काटे पर नतीजा शून्य रहा। पांचवी तक मेड़ा में पढ़ा। मिडिल स्कूल पांच किमी दूर कूका गांव में थी, लेकिन पिता भैराराम की चाह थी कि वह आगे पढ़े। भैराजी तीन साल तक अपने कंधों पर बिठाकर उसे स्कूल ले जाते और छुट्टी होने पर वापस लाते। तब धन्नाराम उन विकलांग बच्चों को देखकर चिन्तित होते थे, जिनके घरवालों का जज्बा उनके पिता जैसा नहीं था।
राजस्थान पत्रिका के 24 जनवरी 2009 के विशेष अंक में प्रकाशित