सूर्यनगरी कहे जाने वाले जोधपुर में तीस सितम्बर दो हजार आठ का कभी न भुलाया जा सकने वाला हादसा सदियों तक सालेगा। इस दिन बड़े-बड़े लेखक और विचारक अपनी दैनिक डायरियों में चंद स्याह लकीरों के अलावा शायद ही कुछ लिख पाए हों। चंद शब्दों के माध्यम से श्रद्धा अर्पित करने का अधूरा सा प्रयास है। शायद आपकी और मेरी आंखों का पानी मिलकर इस प्रयास को पूरा कर सके।
जोधाणे की वह सुबह मनहूस कही जाएगी
स्मृतियां उस अमंगल की कभी मिट नहीं पाएगी।
सूर्यनगरी के अमन और चैन कहां खो गए
सवा दो सौ बेटे चिरनिद्रा में सो गए।।
खेद देख विधि ने यह क्या कर डाला,
अमृत के मधुर सपनों में हालाहल भर डाला।
देखा मौत इंसान के सीने पर इस कदर बढ़ रही है,
देख विधाता! मां के आगे बेटों की बलि चढ़ रही है।
इधर, सरकार पांच लाख देने के तमगे सीने पर टांक रही है,
एक ओर पड़ोसियों की दीवारें सूनी सी ताक रही है।
उधर परिजन दो बेटों की लाश लिए रो रहे हैं,
यहां बेटे के प्रति पिता के अरमान खो रहे हैं।
वहां परिजन दो बेटों की लाश लिए रो रहे हैं,
फूट-फूटकर रोते पराए भी अपने हो रहे हैं।
एक मां दस दिन से बेटे की लगी नौकरी से खुश थी।
पहली तनख्वाह पर
मोहल्ले में मिठाई बांटने के अरमान तब मर गए,
जवान बेटे की लाश लेकर लोग जब उसके घर गए।
रुदन, रुलाई और चीत्कार से मोहल्ले की नींव हिल गई,
जवान भाई की लाश देखकर बहन की जुबान सिल गई।
वह अबोल लाचार पत्नी क्या पूरा दर्द सह गई
उसकी खामोश आंखें दर्द की परिभाषा कह गई।
आज केवल शून्य में देख रही है,
क्या उसके माथे सिन्दूर की जगह अमंगल की रेख रही है।
हे मां! दिन में लोगों की सेवा में तत्पर रहने वाला उसका बेटा दिन में ही कैसे सो गया।
कभी चुप नहीं बैठने वाला उसका चंचल भाई खामोश कैसे हो गया।
किसे पता था कि कई पिताओं की लाठियां छिन जाएंगी,
कौन जानता था कि अगली राखी धागों के बिन आएगी।
कौन कहता था कि मंगल को अमंगल घट जाएगा,
जीवन देने वाला अस्पताल लाशों से पट जाएगा।
न था उनकी मदद को मैं वहां
मेरे दिल में यह खटका क्यों ह,ै
ऐ मेरे आंसू यहां तक आ के अटका क्यूं है।
बह जा पलकों में आ के भटका क्यूं है।।
पुंछ गया सिन्दूर, टूट गई लाठी,
बह गए अरमान, जल गईं आशाएं चिताओं के साथ।
ओ गॉड, या मौला, हे रब, हे प्रभु!
जो भी इस हादसे के कारण रहे हैं क्या तू उन्हें माफ करेगा
माफ कर दिया तो लगेगा कि तेरी है अंधेरे के प्रति गुड फेथ,
और माफ नहीं करे तो हैंग हिम टिल देन डेथ…।
मेरे पास उनके लिए क्या है जो मैं दे सकूं
बस चंद शब्द और ये भावनाएं
ये कुछ शब्द हम उन हुतात्माओं को समर्पित करते हैं
आओ मिलकर उनको अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।।
प्रदीपसिंह बीदावत - 4 अक्टूबर 2008
जोधाणे की वह सुबह मनहूस कही जाएगी
स्मृतियां उस अमंगल की कभी मिट नहीं पाएगी।
सूर्यनगरी के अमन और चैन कहां खो गए
सवा दो सौ बेटे चिरनिद्रा में सो गए।।
खेद देख विधि ने यह क्या कर डाला,
अमृत के मधुर सपनों में हालाहल भर डाला।
देखा मौत इंसान के सीने पर इस कदर बढ़ रही है,
देख विधाता! मां के आगे बेटों की बलि चढ़ रही है।
इधर, सरकार पांच लाख देने के तमगे सीने पर टांक रही है,
एक ओर पड़ोसियों की दीवारें सूनी सी ताक रही है।
उधर परिजन दो बेटों की लाश लिए रो रहे हैं,
यहां बेटे के प्रति पिता के अरमान खो रहे हैं।
वहां परिजन दो बेटों की लाश लिए रो रहे हैं,
फूट-फूटकर रोते पराए भी अपने हो रहे हैं।
एक मां दस दिन से बेटे की लगी नौकरी से खुश थी।
पहली तनख्वाह पर
मोहल्ले में मिठाई बांटने के अरमान तब मर गए,
जवान बेटे की लाश लेकर लोग जब उसके घर गए।
रुदन, रुलाई और चीत्कार से मोहल्ले की नींव हिल गई,
जवान भाई की लाश देखकर बहन की जुबान सिल गई।
वह अबोल लाचार पत्नी क्या पूरा दर्द सह गई
उसकी खामोश आंखें दर्द की परिभाषा कह गई।
आज केवल शून्य में देख रही है,
क्या उसके माथे सिन्दूर की जगह अमंगल की रेख रही है।
हे मां! दिन में लोगों की सेवा में तत्पर रहने वाला उसका बेटा दिन में ही कैसे सो गया।
कभी चुप नहीं बैठने वाला उसका चंचल भाई खामोश कैसे हो गया।
किसे पता था कि कई पिताओं की लाठियां छिन जाएंगी,
कौन जानता था कि अगली राखी धागों के बिन आएगी।
कौन कहता था कि मंगल को अमंगल घट जाएगा,
जीवन देने वाला अस्पताल लाशों से पट जाएगा।
न था उनकी मदद को मैं वहां
मेरे दिल में यह खटका क्यों ह,ै
ऐ मेरे आंसू यहां तक आ के अटका क्यूं है।
बह जा पलकों में आ के भटका क्यूं है।।
पुंछ गया सिन्दूर, टूट गई लाठी,
बह गए अरमान, जल गईं आशाएं चिताओं के साथ।
ओ गॉड, या मौला, हे रब, हे प्रभु!
जो भी इस हादसे के कारण रहे हैं क्या तू उन्हें माफ करेगा
माफ कर दिया तो लगेगा कि तेरी है अंधेरे के प्रति गुड फेथ,
और माफ नहीं करे तो हैंग हिम टिल देन डेथ…।
मेरे पास उनके लिए क्या है जो मैं दे सकूं
बस चंद शब्द और ये भावनाएं
ये कुछ शब्द हम उन हुतात्माओं को समर्पित करते हैं
आओ मिलकर उनको अश्रुपूरित श्रद्धांजलि अर्पित करते हैं।।
प्रदीपसिंह बीदावत - 4 अक्टूबर 2008