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Monday, January 18, 2010

तू कवि है तेरे घाव कैसे भर पाएंगे


तू कवि है तेरे घाव कैसे भर पाएंगे



टूटे रिश्ते बिखरे सम्बंध मांग रहे हैं जीवन की परिभाषा
उनके आकुल होठ नहीं समझते मेरे नयनों की भाषा


स्याह रात की खामोश उदासी लगती सदा आंसू झेलती
उसकी पीड़ा से छोटा लगता विंध्याचल का आंचल
जब भूख देती है दलीलें तो दर्द कैसे समझ पाएगा
तेरे आगे मर रहा है राष्ट्र तेरा तू कैसे सह पाएगा
अनजानी आशंकाएं, काटें और बाधाएं

ये सब मिलकर
मुश्किल तेरा जीना कर जाएंगे
तू कवि है तेरे घाव कैसे भर पाएंगे...


कभी अम्बर पिघलाने वाली वे व्याकुल सांसें देख
पाश्चात्य परिधानों पर मिटती हुईं ये आंखें देख
देख आंसूओं के मोल पर मुस्कानों के सौदे होते
फूलों के लिए गैरों के पथ में देख उन्हें तू कांटे बोते

लुटती मां बहिनों के चीर
हर संस्कृति वधिक के तीर
छलनी तेरा सीना कर जाएंगे
तू कवि है तेरे घाव कैसे भर पाएंगे...


कलरव गर सौंपे सूनापन, अभाव सौंपे तुझको भाव
पीड़ा तुम्हें मुस्कुराहट देती, हंसते फूल दिलाते घाव
नदियों की धीमी गतियों में, सुन तू सदा आशा के गीत
पहाड़ों पर झरते निरझर में, तू देख सदा जीवन-संगीत

पीड़ा की इस पाठशाला में,
वेदना की खारी हाला में
देख लिया गर अखबार आज का
तेरे छोटे बच्चे डर जाएंगे
तू कवि है तेरे घाव कैसे भर पाएंगे...


दर्द गर सौंपे खुशियां तो चहकने में है क्या बुराई
छोड़ चिन्ता, जुटा रह कर्म में भले हो जग में हंसाई
घावों से बहता रक्त, पीड़ा का दामन भर जाएगा
क्या तेरा है क्या मेरा है कहते कहते मर जाएगा

सूखे घावों को और हरा तू होता देख
जीवन के मूल्य पर चाहत-आशा खोता देख
चाह औषधि, कर भले अनगिनत जतन
पुराने भर गए तो वे हरे कर जाएंगे

तू कवि है तेरे घाव कैसे भर पाएंगे...

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