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Tuesday, January 5, 2010

मैं कलम! बस थोड़ा सा जीना चाहती हूं


मैं कलम! बस थोड़ा सा जीना चाहती हूं
गहरे है ज़ख्म तनिक सीना चाहती हूं


हावी अधिकार, बंटता मजहब मरते लोग
गौण कर्तव्य, मौन स्वधर्म, नहीं ईश से योग
सब हंसे, सब सुखी वो मीना चाहती हूं
मैं कलम...


बिकती बहनों, भूखी मांओं, नंगे बच्चों
लुटती पांचाली, वधित क्रौंचों को देख
गरल सारे जहान का मैं पीना चाहती हूं
मैं कलम...


संबंध ओ अनुबंध है परिभाषाएं मांगते
स्वप्न सोए सारे नयनों की भाषाएं मांगते
लिखुं तो छलनी हो वो सीना चाहती हूं
मैं कलम...


निशब्दों के बोल बनूं, आंसुओं की आशा
चेतना के स्वर बन, बनुं उजाले की भाषा
खुद में 'प्रदीप' जलाकर जीना चाहती हूं
मैं कलम...

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