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Tuesday, December 8, 2009

कुछ निराशावादी लाइनें जिनकी आस नहीं थी...

निराशा
(1)
खिलना चाहता था कहीं सुदूर व्योम में,
बनना चाहता था समिधा किसी होम में।
धूप में भी तो कभी नहीं वो हंस पाया
हवा ओ अंधेरे ने जो 'प्रदीप' बुझाया।।


(2)
थरथराता धुआं
जब मां मेरी बेरोजगारी पर आंसू बहाया करती है,
चुपके से अपनी ही ओढ़नी में आंखें छुपाकर।।
तब इक तीली की तरह ही जलती है उम्मीदें
तन्हा रह जाता है 'प्रदीप' जैसे थरथराता धुआं।।


(3)
बिन 'आका' वाली तेरी लेखनी

आंधी के दीए जितनी ही उम्मीद बचती है,
बिन 'आका' वाली तेरी लेखनी के लिए।
शायद स्याही ने भी छोड़ दिया है 'प्रदीप'
कागज़ों पर उजली सच्चाई बयां करना।।

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