अकाल का मौसम होने के बावजूद चेहरे पर मुस्कराहट। यही जीवंतता है इस देश की। देशभर में दीपावली का त्योहार मनाया जा रहा है। नन्हे-नन्हे दीपक उजास का संदेश देते हुए तमस से लड़ने का आuान कर रहे हैं। दीपक प्रतीक है जीवंतता का। चैतन्यता का। कैसा जीवंत दर्शन है कि मिट्टी से बनने वाला दीपक अपने जीवन को जलकर सार्थक करता है। मिट्टी से दीपक बनने और मिट्टी में मिलने तक के सफर को जानें तो समझ आएगा कि दीपक अपना जीवन सहज में ही पूरा नहीं करता है। मिट्टी से उठाकर गधे पर लादा जाता है तो शर्म आती होगी। वहां से लाकर उसे कूटा जाता है तो पीड़ा होती होगी। पानी में गलाया जाता है तो वेदना होती होगी। चाक पर चलाते वक्त चक्कर आते होंगे। उतारते वक्त डोरे से काटकर मिट्टी से अलग कर दिया जाता है और एक सुंदर रूप मिलता है। इस पर रंग होता हैं तो आत्मश्लाघा का भाव भी आ सकता है, लेकिन तुरंत बाद इसे आग में तपाया जाता है और उसका रूप निखरता है। जन्म होता है एक दीपक का। इसके बाद मोलभाव और बिकने का दौर। अब साथियों से बिछुड़ने का विरह। खरीदकर घर लाया जाता है। गृहस्वामिनी द्वारा इन्हें धोने के बाद तेल और बाती से मुलाकात और फिर एक लौ के माध्यम से इसकी जवानी और जिंदगी दोनों जलते हैं। तेल पूरा होता है तो एक अंतिम भभक और जीवन समाप्त। सुबह उठाकर सड़क पर फेंक दिया जाता है कोई वाहन दीपक पर से गुजरता है और जीवन समाप्त।
यह कहानी है एक दिए की। शर्म, पीड़ा, प्रताड़ना, आत्मश्लाघा और गौरव समेत सारे भावों को अपने में संजोकर जीने वाला दीपक अपने जीवन को जिस तरह पूरा करता है। उसी तरह एक इंसान के जीवन में भी ये क्षण और भाव आते हैं जब उसे पीड़ा, ताड़ना, शर्म, वेदना अथवा विरह महसूस करना पड़ता है।
इसलिए कहा है
देता रहे जीवन ज्योति तू कण-कण को जला के।
अस्तित्व मिटा के।
तूफान भी मचलेंगे हिलेगी शमां भी
बुझ जाएंगे दीपित दीप ओ छाएगी तमा भी।
किंचित न बुझे जलता ही रहे जीवन को जला के।
अस्तित्व मिटा के।
इसी दीपावली पर हम संकल्प लें इन्हीं दीपकों की तरह अवरोधों से लड़ने का। दीपक का निर्दोष उजाला हमारे जीवन चरित्र को इतना उज्ज्वल बनाए कि हम हर बार किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति से निकलें और हम अपना स्वधर्म निभाएं। हमारा यही स्वधर्म राष्ट्र को प्रगति के पथ पर अग्रसर करे और खुशहाली के दीप जलें।
अलग-अलग हैं दीप मगर सबका है एक उजाला,
सबके सब मिल काट रहे हैं अंधकार का जाला।
किसी एक के भी अंतर का स्नेह न चुकने पाए,
तम के आगे ज्योति पुंज का दीप न बुझने पाए॥
यह कहानी है एक दिए की। शर्म, पीड़ा, प्रताड़ना, आत्मश्लाघा और गौरव समेत सारे भावों को अपने में संजोकर जीने वाला दीपक अपने जीवन को जिस तरह पूरा करता है। उसी तरह एक इंसान के जीवन में भी ये क्षण और भाव आते हैं जब उसे पीड़ा, ताड़ना, शर्म, वेदना अथवा विरह महसूस करना पड़ता है।
इसलिए कहा है
देता रहे जीवन ज्योति तू कण-कण को जला के।
अस्तित्व मिटा के।
तूफान भी मचलेंगे हिलेगी शमां भी
बुझ जाएंगे दीपित दीप ओ छाएगी तमा भी।
किंचित न बुझे जलता ही रहे जीवन को जला के।
अस्तित्व मिटा के।
इसी दीपावली पर हम संकल्प लें इन्हीं दीपकों की तरह अवरोधों से लड़ने का। दीपक का निर्दोष उजाला हमारे जीवन चरित्र को इतना उज्ज्वल बनाए कि हम हर बार किंकर्तव्यविमूढ़ता की स्थिति से निकलें और हम अपना स्वधर्म निभाएं। हमारा यही स्वधर्म राष्ट्र को प्रगति के पथ पर अग्रसर करे और खुशहाली के दीप जलें।
अलग-अलग हैं दीप मगर सबका है एक उजाला,
सबके सब मिल काट रहे हैं अंधकार का जाला।
किसी एक के भी अंतर का स्नेह न चुकने पाए,
तम के आगे ज्योति पुंज का दीप न बुझने पाए॥