Latest News

Friday, October 16, 2009

भूख के घर दीवाली नहीं मनती है


सीधी रस्सी पर चलती हुई
चलते चाकू से टलती हुई
नन्हे बदन सहित छोटे से
चक्कर में से निकलती हुई
उस बच्ची पर नजर टिकी
लगी नहीं हुई फिसलती हुई


बैठे पिता के आदेश पर
खड़ी मां के आवेश पर
उसके चंचल पैर बड़े सधे से
रस्सी पर चल रहे थे
जैसे दो नन्हे सितारे
आकाशगंगा पर टहल रहे थे


अचानक
हड़बड़ा गई
पिता की कठोर आवाज
कड़कड़ा गई
रस्सी पर लड़खड़ा गई
कहां मरी जा रही है
ढंग से चल नहीं तो
एक तमाचा पड़ेगा


(फिर खुद सोचा)
पूरी रस्सी पार नहीं तो
भूखे ही सोना पड़ेगा
वह फिर सीधी चलने लगी
लड़खड़ाई टांगे संभलने लगी
जैसे तैसे पूरी रस्सी हो गई पार
दर्शक वर्ग से तालियों की बौछार


आज का खेल हुआ खतम
जो टुकड़ों में आया वह
पैसा हुआ हजम।
रात को सोते वक्त नन्हे
भाई ने पूछ ही लिया
दीदी तुम आज लड़खड़ा क्यों गई थी
रस्सी पर एक बार हड़बड़ा क्यों गई थी
तुम तो मां से भी सधे कदमों से चलती हो
गिरने की स्थिति में भी संभलती हो
बापू भी कहते हैं यह है जब तक
रोटी का जुगाड़ होता रहेगा तब तक


बोली आज मेरी चाल गड़बड़ा गई थी
पहली बार मैं हड़बड़ा गई थी क्योंकि
मैंने आज रस्सी पर से ही देखा था
कुछ नन्हे बच्चों को अपनी मांओं के साथ
जो लाए थे दीवाली के ढेर से पटाखे
बैग लटकाए कुछ बच्चे जा रहे थे स्कूल
इसलिए एकबारगी मैं खेल को गई भूल
मेरी चाल लड़खड़ा गई
और पहली बार मैं हड़बड़ा गई


आज का खेल कहीं खराब होता
तो मां मुझे खूब मारती, मैं रोती
रोटी ना मिलने की याद ने संभाला
वरना मैं तो गिर गई होती।


अब भाई बोला
तुम इतने पैसे बापू को कमाकर देती हो
उसके बदले में अपने लिए दीवाली पर
कुछ पटाखे क्यों नहीं लेती हो।


वह बोली मुन्नु हम दीवाली नहीं मनाते
छोटा बोला हम क्यों नहीं मनाते हैं
जो हिन्दु नहीं है वे भी मनाते हैं
फिर हम भी तो हिन्दुओं में आते हैं


वह बोली हमारा धर्म क्या है जानेगा
हम हिन्दु मुस्लिम सिख इसाई कुछ नहीं
भूख से लड़ने का स्वर्धम निभाते हैं
शायद इसीलिए दीवाली नहीं मनाते हैं


रोशन दीवाली अंधियारे से लड़ती है
पर हम तो रोज दिवाले से लड़ते हैं
पैसा नहीं हो तो दीवाली नहीं होती
मेरे भाई हम भूख में रोज पेट ऐंठते हैं
जिन घरों में दिवाला विराजित हो
वहां दीवाली के देव कहां बैठते हैं?


जमाने में भूख और उजाले की कब बनती है
इसीलिए भूख के घर दीवाली नहीं मनती है

Total Pageviews

Recent Post

View My Stats